_*दाढ़ी रखने की सुन्नतें*_
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_*हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि मुशरेकीन की मुखालिफत करो यानि दाढ़ियों को बढ़ाओ और मूंछों को खूब कम करो*_
_*📕 बुखारी शरीफ, जिल्द 2, सफ़ह 875*_
_*📕 मुस्लिम शरीफ, जिल्द 1, सफ़ह 129*_
_*📕 तिर्मिज़ी शरीफ, जिल्द 2, सफ़ह 105*_
_*तमाम सुन्नतों में दाढ़ी 1 मुश्त तक बढ़ाने की सुन्नत इतनी क़वी है कि उलमा इकराम इसको वाजिब कहते हैं*_
_*📕 अशअतुल लमआत, जिल्द 1, सफ़ह 212*_
_*दाढ़ी बढ़ाना तमाम नबियों की सुन्नत है इसे मुंडाना या 1 मुश्त से कम करना हराम है,*_
_*📕 बहारे शरीयत, हिस्सा 16, सफ़ह 197*_
_*दाढ़ी जबकि 1 मुश्त से कम हो तो उसे काटना किसी इमाम यानि हनफ़ी, शाफई, मालिकी व हम्बली के नज़दीक जायज़ नहीं है और पूरी तरह से मूंड देना तो मुख़न्नस यानि हिजड़ों का और हिंदुस्तान के यहूदी और ईरान के मजूसियों का तरीक़ा है,*_
_*📕 दुर्रे मुख़्तार, जिल्द 2, सफ़ह 116*_
_*📕 बहरूर राईक़, जिल्द 2, सफ़ह 280*_
_*📕 फत्हुल क़दीर, जिल्द 2, सफ़ह 270*_
_*📕 तहतावी, सफ़ह 411*_
_*! हदीसे पाक में आता है कि " मन तशबबहा बेक़ौमेही फ़हुवा मिन्हुम " यानि जो जिस क़ौम से मुशाबहत रखेगा उसका हश्र उसी के साथ होगा, माज़ अल्लाह सुम्मा माज़ अल्लाह, अब हिंदुओं का तरीक़ा अपनाने वाले इसाईयों का तरीक़ा अपनाने वाले, मुसलमान होकर भी ग़ैरों की तरह नज़र आने वाले अपना अंजाम सोच लें कि,*_
_*उन्हें अपना हश्र किसके साथ करना है, मुसलमानों के साथ या माज़ अल्लाह काफिरों के साथ, अगर मेरी ये बात हलकी लग रही हो तो ये भारी दलील मुलाहज़ा कर लें,*_
_*हिक़ायत - जब मुगलों की हुकुमत ख़त्म हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी का तसल्लुत हिंदुस्तान पर हुआ तो शहर लखनऊ उत्तर प्रदेश में अंग्रेज़ो का एक अफसर मुसल्लत किया गया, दफ्तर का सारा लेखा जोखा फ़ारसी में था जिससे उसे काफी दिक़्क़तें आनी शुरू हुई तो उसने एक मौलाना को तनख्वाह पर रख लिया जो फ़ारसी और इंग्लिश दोनों जानते थे, और जब दफ्तर में काम ना हो पाता तो वो अफसर उन्हें घर पर भी बुलाने लगा, अंग्रेज़ अफसर की एक बेटी थी जो निहायत ही खूबसूरत और ज़हीन के साथ साथ पारसा भी थी, इसाई होने के बावजूद अजनबियों से इतना पर्दा करती थी कि इसी लिए वो कभी चर्च न गयी थी, हमेशा सादगी के साथ घर में ही रहती थी*_
_*एक दिन मौलाना साहब को काम में काफी देर हो गयी और मग़रिब का वक़्त आ गया तो उन्होंने घर पर ही नमाज़ पढ़ने की इजाज़त चाही तो अफसर ने इजाज़त दे दी, मग़रिब की नमाज़ उन्होंने जहर यानी आवाज़ से पढ़नी शुरू की, इत्तेफ़ाक़ कमरे के बाहर से लड़की का गुज़र हुआ तो एक अजनबी आवाज़ और अजनबी कलाम सुनकर ठहर गयी और क़ुरान को ध्यान से सुनती रही, नमाज़ ख़त्म हो गयी मगर उसके दिल में कुरआन की लज़्ज़त बढ़ गयी, अब तो मौलाना साहब अक्सर मग़रिब की नमाज़ वहीँ अफसर के घर पर ही पढ़ लेते थे जिसे वो छिपकर सुनती रहती, उस लड़की के दिल में क़ुरान की अज़मत बैठ चुकी थी लिहाज़ा एक दिन उसने अपने बाप से फरमाइश की कि मुझे भी मौलाना साहब से पढ़ने की इजाज़त दे दीजिये, ये पहली बार था जब उस लड़की ने अपने बाप से कुछ मांगा था उसके बाप ने ख़ुशी ख़ुशी इजाज़त दे दी और घर में पर्दे का इंतेज़ाम करा दिया गया, वो परदे की आड़ से जो सवालात पूछती उसे मौलाना साहब जवाब दे देते, इसलाम की जानकारी हासिल करने के लिए उसने कुछ किताबें भी मंगवा ली थी, वो उसे बग़ौर पढ़ती रही आखिर एक दिन उसका ईमान जागा और दिल ही दिल में वो मुसलमान हो गयी, छिपकर नमाज़ें पढ़ती, रोज़े रखती, चुंकि पर्दा बहुत करती थी इसलिए हर किसी को उसके कमरे में जाने की इजाज़त नहीं थी, एक रात उसने ख्वाब देखा कि उसकी क़ज़ा का वक़्त आ गया है सुबह उठी तो चेहरा चौदहवीं रात के चांद की तरह चमक रहा था, इमानी नूर उसके चेहरे पर साफ़ नज़र आता था घर के किसी अफ़राद की नज़र उससे न हटती थी, उसे यक़ीन था कि रात का ख्वाब सच्चा है और अब उसे अपने माबूदे हक़ीक़ी से मिलना है ये सोचकर वो बहुत ज़्यादा खुश थी,*_
_*फिर उसने सोचा कि मैं मुसलमान हूं ये बात सिवाए मेरे तो कोई जानता ही नहीं लिहाज़ा गवाह बनाना चाहिए ये सोचकर उसने सारी बात मौलाना साहब को बता दी, उन्होंने कहा कि तुम्हारा ईमान लाना मुबारक हो मगर ये बात अगर तुम्हारे बाप को पता चल गयी तो तुम्हारी और मेरी दोनों की जान खतरे में आ जाएगी, लिहाज़ा बेहतरी इसी में है कि तुम अपना ईमान छिपाकर ही रखो, इस पर वो राज़ी हो गयी मगर मौलाना साहब से ये अहद ले लिया चुंकि सबकी नज़र में वो इसाई थी तो मरने के बाद उसे इसाईयों के क़ब्रिस्तान में ही दफनाया जाएगा तो उसकी लाश को वहां से निकाल कर मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफन कर दिया जाए, मौलाना साहब ने वादा कर लिया कि वो ज़रूर ऐसा करेंगे, कुछ दिनों के बाद वो मुक़द्दस बन्दी इस दुनिया से रुखसत हो गयी, और जैसा कि होना था उसे उसके बाप ने इसाईयों के क़ब्रिस्तान में ही दफन करा दिया, मौलाना साहब भी गए और क़ब्र का निशान लगाकर वापस आ गए, अपने 3 दोस्तों को पूरा वाक़िया बताकर उन्हें भी साथ लेकर रात को फिर क़ब्रिस्तान पहुंचे और उस लड़की की क़ब्र खोदना शुरू की, ताज़ी क़ब्र थी सो ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी मगर ज्युं ही लाश को देखा तो सबके होश उड़ गए, वहां से लड़की की लाश गायब थी और उस क़ब्र में एक नवाब साहब की लाश पड़ी थी जिन्हें उन चारों में से एक ने पहचान लिया कि ये तो बारा-बंकी के फलां मिर्ज़ा साहब हैं,इन लोगों ने क़ब्र बंद की और घर वापस आ गए, रात किसी तरह गुज़री सुबह को चारों लखनऊ से बरा बांकी को रवाना हुए, जब मिर्ज़ा साहब के घर पहुंचे तो पता चला कि कल ही उनका इंतेक़ाल हुआ है, इन्होंने उनके बेटे से उनकी क़ब्र का निशान पूछा तो उसने ले जाकर दिखा दिया, ये निशान लगाकर वापस आ गए फिर रात को नवाब साहब की क़ब्र पर पहुंचे और उसे खोदना शुरू किया, जैसे ही लाश नज़र आई तो फिर से उनके पैरों के नीचे से जमीन खसक गई अब उस क़ब्र में शक्लो सूरत व हैबत से किसी अरबी की लाश पड़ी थी,*_
_*इन चारों पर गशी तारी हो गयी और सारे हिजाबात उठ गए लड़की की रूह हाज़िर हुई और बोली कि हैरान न होइये ये सब मेरे रब का करिश्मा है, आप तो जानते थे कि मैं मुसलमान हूं और मेरी हमेशा यही तमन्ना रही कि काश एक बार मुझे मेरे नबी की सरज़मीन को देखने का मौका मिल जाता, तो मेरे परवर दिग़ार ने मेरी वो आरज़ू युं पूरी फरमाई कि मेरी लाश को फ़रिश्ते उठा कर मदीने में दफन कर आये, जिसे आपने मेरी क़ब्र में पाया वो नवाब साहब बज़ाहिर तो मुसलमान थे मगर उनकी ज़िन्दगी के सारे मुआमलात इसाईओं की तरह ही हुआ करते थे तो फरिश्तों ने उन्हें मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में न रहने दिया और उन्हें इसाईयों के क़ब्रिस्तान में पहुंचा दिया, और ये अरबी जिसकी लाश आप नवाब साहब की क़ब्र में देख रहे हैं तो थे तो ये अरबी मगर इन्हें हमेशा हिंदुस्तान से ही मुहब्बत रही इस लिए फरिश्तों ने इन्हें अरब में ना रहने दिया बल्कि इन्हें यहां पहुंचा दिया, मैं आपकी शुक्र गुज़ार हूं कि आपकी रहबरी में मैंने हक़ का रास्ता इख्तियार किया और ये कहकर वो सबकी आंखों से ओझल हो गयी*_
_*📕 लालाज़ार, सफह 49-61*_
_*ये है " मन तशबबहा बेक़ौमेही फ़हुवा मिन्हुम " अगर मुसलमान हैं तो अपनी चाल से, ढ़ाल से, लिबास से, सूरत से, सीरत से,इख़लाक़ से, अमल से हर तरह से मुसलमान नज़र आयें, वरना ईमान तो उस रेत की तरह है कि कब हाथ से निकल जायेगी और खबर भी न होगी, जो ईमान बग़ैर मेहनत करे हमें युंहि मिल गया है अगर हम उसे संभाल भी न सकें तो फिर हमसे बड़ा बदनसीब कौन होगा.*_
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