_*इल्मे ग़ैब पर वहाबियों का ऐतराज़*_
_*हिस्सा- 7*_
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_*08). वहाबी कहता है कि बुखारी शरीफ की रिवायत है हुज़ूर ﷺ फरमाते हैं कि मैं खुद नहीं जानता कि मेरे साथ क्या किया जायेगा, अगर हुज़ूर ﷺ को ग़ैब होता तो हरगिज़ ऐसा ना कहते*_
_*08). हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि एक दिन हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम हमारे दरमियान हाज़िर हुए तो आपके हाथों में 2 किताब थी, आपने पुछा कि क्या तुम लोग इस किताब के बारे में जानते हो तो सहाबा ने अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम आपके बग़ैर बताये हम नहीं जानते, तो आपने दाहिने हाथ की किताब की तरफ इशारा किया और फरमाया कि इसमें जन्नत में जाने वालों के नाम उनके बाप के नाम के साथ दर्ज हैं और आखिर में सबका टोटल भी कर दिया गया है कि अब उसमे कमी या ज़्यादती नहीं होगी, फिर बायें हाथ की किताब की तरह इशारा करते हुए फरमाया कि इसमें जहन्नम में जाने वालों के नाम उनके बाप के नाम के साथ दर्ज हैं और आखिर में सबका टोटल भी कर दिया गया है कि अब उसमे कमी या ज़्यादती नहीं होगी*_
_*📕 तिर्मिज़ी, जिल्द 2, सफह 36*_
_*गौर करें कि वहाबी कहता है कि वो खुद अपना हाल नहीं जानते मगर हदीसे पाक से साबित है कि वो पूरी रूए ज़मीन के लोगों का हाल जानते हैं कि कौन जन्नती है और कौन जहन्नमी अब वहाबियों की इससे बड़ी जिहालत क्या होगी, रही बात क़ुरआन की उन आयतों या हदीस के उन अल्फाज़ों की तो उनका मतलब वही है जो मैं कई बार बता चुका हूं कि यहां ग़ैबे ज़ाती का इनकार है हुज़ूर ये फरमाते हैं कि मैं खुद अपनी ज़ात से ग़ैब का जानने वाला नहीं हूं बल्कि रब मुझे खबर देता है तो मैं जानता हूं, तो यही तो हम अहले सुन्नत वल जमात का अक़ीदा है वरना अगर ये अक़ीदा ना रखें तो कुरान की बीसों आयत और सैकड़ों हदीस का इंकार होगा*_
_*09). वहाबी कहता है कि अज़्वाजे मुतहहरात के कहने पर आपने शहद को मगाफीर समझकर अपने ऊपर हराम कर लिया, अगर आप ग़ैब जानते तो हरगिज़ ऐसा ना करते*_
_*09). तर्जुमा थानवी - ऐ नबी जिस चीज़ को अल्लाह ने आपके लिए हलाल किया है आप उसको अपने ऊपर क्यों हराम फरमाते हैं अपनी बीवियों की खुशनूदी के लिए*_
_*📕 पारा 28, सूरह तहरीम, आयत 1*_
_*खुदा जब दीन लेता है,*_
_*तो अक़्लें छीन लेता है.!*_
_*मुआमला ये था कि अस्र के बाद हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम अपनी बीवियों के पास थोड़ी थोड़ी देर के लिए जाते, एक दिन जब हज़रते हफ्शा बिन्त उमर रज़ियल्लाहु तआला अन्हा के घर गए तो उनके यहां कुछ लोगों ने शहद भेज दिया था जिसे उन्होंने हुज़ूर को पीने को दे दिया और आपको वहां कुछ देर लग गयी,ये बात हज़रते आइशा व हज़रते सौदा व हज़रते सफिया पर गिरां गुज़री और सबने आपस में ये तय किया कि जब हुज़ूर आएंगे तो हम लोग ये कहेंगे कि क्या आप मगाफीर खा कर आये हैं चूंकि मगाफीर एक बदबुदार चीज़ थी जो कि हुज़ूर को नापसंद थी इसलिए वो शहद को मगाफीर समझकर पीने से गुरेज़ करेंगे, अभी ये बात हो ही रही थी कि हुज़ूर तशरीफ लायें हज़रते आइशा ने चाहा कि हुज़ूर को बता दें मगर इससे पहले ही दूसरी अज़वाज ने मगाफीर खाने की बात कह दी फिर दूसरी ने भी यही कहा, तो हुज़ूर तो जानते ही थे कि मैं शहद पीकर आया हूं मगर चुंकि उनका दिल रखने के लिए आपने फरमाया कि ठीक है "मैं आइंदा कभी शहद नहीं पियूंगा" जिस पर ये आयत उतरी जिसमे मौला भी यही फरमाता है कि आप अपनी बीवियों की रज़ा के लिए क्यों शहद को अपने ऊपर हराम किये लेते हैं, अब इसमें ग़ैब और बे ग़ैब की बात कहां से आ गयी ये कोई वहाबी बताये*_
_*10). वहाबी कहता है कि हुज़ूर ﷺ ने किसी सहाबी को फलों की काश्त करने को कहा मगर उस साल फल पिछले साल से भी कम आये, अगर हुज़ूर ﷺ को ग़ैब था तो ऐसा क्यों फरमाया*_
_*10). चुंकि जिस हिसाब से वो सहाबी फलों की काश्त करते थे उसमे बहुत मेहनत थी तो हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम ने उन्हें मना किया कि इतने मेहनत की ज़रूरत नहीं है बल्कि उसे युंही छोड़ दो, खुदा की शान कि फल कम लगे जिसकी शिकायत लेकर वो सहाबी बारगाहे नब्वी में हाज़िर हुए तो आपने नाराज़गी का इज़हार करते हुए फरमाया कि अगर तुम सब्र नहीं कर सकते तो फिर अपने मुआमलात तुम खुद जानो मतलब ये था कि अगर वो सहाबी एक दो साल ये नुकसान बर्दाश्त कर लेते तो फ़िज़ूल मेहनत से बच जाते और उसी फन में उन्हें फौकियत हासिल हो जाती*_
_*📕 जाअल हक़, जिल्द 1, सफह 116*_
_*खत्म......*_
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