_*वसीला का बयान*_
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_*ⓩ अत्तारिफात सफह 225 पर वसीला का मायने ये बयान किया गया है कि "जिस के ज़रिये रब का क़ुर्ब व नज़दीकी हासिल की जाये उसे वसीला कहते हैं" बेशक अम्बिया व औलिया का वसीला लगाना उनकी ज़िन्दगी में भी और बाद वफात भी बिला शुबह जायज़ है और क़ुर्आनो हदीस में बेशुमार दलायल मौजूद हैं, मुलाहज़ा फरमायें मौला तआला क़ुर्आन मुक़द्दस में इरशाद फरमाता है कि*_
_*कंज़ुल ईमान - ऐ ईमान वालो अल्लाह से डरो और उसकी तरफ वसीला ढूंढो*_
_*📕 पारा 6, सूरह मायदा, आयत 35*_
_*ⓩ वसीले के ताल्लुक़ से इससे ज़्यादा साफ और सरीह हुक्म शायद ही क़ुर्आन में मौजूद हो मगर फिर भी कुछ अन्धो को ये आयतें नहीं सूझती, खैर आगे बढ़ते हैं फिर मौला इरशाद फरमाता है कि*_
_*कंज़ुल ईमान - ऐ ईमान वालो सब्र और नमाज़ से मदद चाहो*_
_*📕 पारा 2, सूरह बक़र, आयत 153*_
_*ⓩ इस आयत में सब्र और नमाज़ को वसीला बनाने का हुक्म है, और पढ़िये*_
_*कंज़ुल ईमान - और जब वो अपनी जानो पर ज़ुल्म कर लें तो ऐ महबूब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों फिर अल्लाह से माफी चाहें और रसूल उनकी शफाअत फरमायें तो ज़रूर अल्लाह को बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पायें*_
_*📕 पारा 5, सूरह निसा, आयत 64*_
_*ⓩ इस आयत को बार बार पढ़िये और इसका मफहूम समझिये, नमाज़ ना पढ़ी रोज़ा ना रखे हज ना किया ज़कात नहीं दी शराब पी चोरी की ज़िना किया झूट बोला सूद खाया रिशवत ली गर्ज़ कि कोई भी गुनाह किया मगर की तो मौला की ही नाफरमानी, तो जब तौबा करनी होगी तो डायरेक्ट अल्लाह की बारगाह में तौबा कर लेंगे फिर ये हुज़ूर की बारगाह में भेजने का क्या मतलब, मतलब साफ है कि गुनाह छोटा हो या बड़ा 1 हो या 1 करोड़ अगर माफी मिलेगी तो हुज़ूर के सदक़े में ही मिलेगी वरना बिना हुज़ूर के तवस्सुल से अगर माफी चाहता है तो सर पटक पटक कर मर जाये फिर भी मौला माफ नहीं करेगा, इस आयत की पूरी तशरीह आगे करता हूं मगर अब जबकि बात में बात निकल आई है तो पहले इसकी दलील मुलाहज़ा फरमा लें मौला तआला क़ुर्आन में फरमाता है कि*_
_*कंज़ुल ईमान - फिर सीख लिए आदम ने अपने रब से कुछ कल्मे तो अल्लाह ने उसकी तौबा क़ुबूल की*_
_*📕 पारा 1, सूरह बक़र, आयत 37*_
_*तफसीर - तिब्रानी हाकिम अबु नुऐम व बैहकी ने मौला अली रज़ियल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत की कि जब हज़रत आदम अलैहिस्सलाम जन्नत से दुनिया में आये तो आप अपनी खताये इज्तेहादी पर 300 साल तक नादिम होकर रोते रहे मगर आपकी तौबा क़ुबूल ना हुई, अचानक एक दिन अल्लाह ने आपके दिल में ये इल्क़अ फरमाया कि वक़्ते पैदाईश मैंने जन्नत के महलों पर उसके सुतूनों पर दरख्तों और उसके पत्तों पर हूरों के सीनो पर गुल्मां की पेशानियों पर ला इलाहा इल्लललाह मुहम्मदुर रसूल अल्लाह जल्ला शानहु व सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम लिखा देखा है, ज़रूर ये कोई बुज़ुर्ग हस्ती है जिसका नाम अल्लाह ने अपने नाम के साथ लिखा हुआ है तो आपने युं अर्ज़ की (अल्लाहुम्मा असअलोका बिहक्क़े मुहम्मदिन अन तग़फिरली यानि ऐ अल्लाह मैं तुझसे हज़रत मुहम्मद सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम के सदक़े से मगफिरत चाहता हूं) तब अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने उनकी तौबा क़ुबूल फरमाई*_
_*📕 खज़ाएनुल इरफान, सफह 7*_
_*ⓩ सोचिये जब सारी दुनिया के बाप हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को मेरे आक़ा हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम के वसीले की ज़रूरत है तो फिर हम और आप की औकात ही क्या है कि हम बिना हुज़ूर का वसीला लिए मौला से कुछ ले सकें या अपनी मग़फिरत करा सकें, इसीलिए तो मेरे आलाहज़रत अज़ीमुल बरक़त रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि*_
_*ला वरब्बिल अर्श जिसको जो मिला उनसे मिला*_
_*बटती है कौनैन में नेअमत रसूल अल्लाह की*_
_*वो जहन्नम में गया जो उनसे मुस्तग़नी हुआ*_
_*है खलील उल्लाह को हाजत रसूल अल्लाह की*_
_*सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम*_
_*कंज़ुल ईमान - और अगर जब वो अपनी जानों पर ज़ुल्म करें तो ऐ महबूब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर हों फिर अल्लाह से माफी चाहें और रसूल उनकी शफाअत फरमायें तो ज़रूर अल्लाह को बहुत तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पायें*_
_*📕 पारा 5, सूरह निसा, आयत 64*_
_*तफसीर - आपकी वफाते अक़दस के बाद एक आराबी आपकी मज़ार पर हाज़िर हुआ और रौज़ये अनवर की खाक अपने सर पर डालकर यही आयत पढ़ी और बोला कि या रसूल अल्लाह सल्लललाहु तआला अलैहि वसल्लम मैंने अपनी जान पर ज़ुल्म किया अब मैं आपके हुज़ूर अल्लाह से माफी चाहता हूं मेरी शफाअत कराईये तो रौज़ये अनवर से आवाज़ आई कि जा तेरी बख्शिश हो गयी*_
_*📕 खज़ाएनुल इरफान, सफह 105*_
_*ⓩ इतना तो बद अक़ीदा भी मानता ही है कि क़ुर्आन का हुक्म सिर्फ हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम के ज़माने मुबारक तक ही महदूद नहीं था बल्कि वो क़यामत तक के लिए है तो जब क़यामत तक के लिए उसका हर कानून माना जायेगा तो ये क्यों नहीं कि हुज़ूर से शफाअत कराई जाये, क्या माज़ अल्लाह खुदा ने क़ुर्आन में ये कहा है कि मेरे महबूब की ज़िन्दगी तक ही उनकी बारगाह में जाना बाद विसाल ना जाना बिल्कुल नहीं तो जब रब ने ऐसा कोई हुक्म नहीं दिया तो फिर अपनी तरफ से दीन में हद से आगे बढ़ने की इजाज़त इनको कहां से मिली, खैर मौला हिदायत अता फरमाये अब देखिये इससे बहुत सारे मसले हल हुए*_
_*1. सालेहीन का वसीला लेना जायज़ है*_
_*2. उनसे शफाअत की उम्मीद रखना जायज़ है*_
_*3. बाद विसाल उनकी मज़ार पर जाना जायज है*_
_*4. उन्हें लफ्ज़े या के साथ पुकारना जायज़ है*_
_*5. वो अपनी मज़ार में ज़िंदा हैं*_
_*6. और सबसे बड़ी बात कि वो बाद वफात भी मदद करने की क़ुदरत रखते हैं*_
_*हदीस - हज़रत उस्मान बिन हुनैफ रज़ियल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि एक अंधा आदमी हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम की बारगाह में हाज़िर हुआ और अर्ज़ किया कि आप अल्लाह से दुआ करें कि वो मुझे आंख वाला कर दे तो आप सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि तु चाहे मैं दुआ करूं या तु चाहे तो सब्र कर कि ये तेरे लिए ज़्यादा बेहतर है, इस पर उसने दुआ करने के लिए कहा तो हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि अच्छा अब वुज़ू कर 2 रकात नमाज़ पढ़ और युं दुआ कर (ऐ अल्लाह मैं तुझसे मांगता हूं और तेरी तरफ मुहम्मद सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम के वसीले से तवज्जह करता हूं जो नबीये रहमत हैं और या रसूल अल्लाह सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम मैं हुज़ूर के वसीले से रब की तरफ इस हाजत में उम्मीद करता हूं कि मेरी हाजत पूरी हो या अल्लाह मेरे हक़ में हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम की शफाअत कुबूल फरमा) वो शख्स गया और नमाज़ पढ़ी दुआ की जब वो वापस आया तो आंख वाला हो चुका था*_
_*📕 तिर्मिज़ी, जिल्द 2, सफह 197*_
_*ⓩ इमाम तिर्मिज़ी फरमाते हैं कि ये हदीस सही है यही हदीस निसाई इब्ने माजा हाकिम बैहकी तिब्रानी वगैरह में भी मिल जायेगी, अब मोअतरिज़ कहेगा कि नबियों का वसीला तो फिर भी लिया जा सकता है मगर औलिया का वसीला लेना जायज़ नहीं तो उसकी भी दलील मुलाहज़ा फरमायें*_
_*हदीस - हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत है कि जब जब हम पर कहत का ज़माना आता तो हज़रते उमर फारूक़े आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु हज़रते अब्बास रज़ियल्लाहु तआला अन्हु का वसीला लगाते और युं दुआ करते कि (ऐ अल्लाह हम तेरी बारगाह नबी को वसीला बनाया करते थे तू हमें सैराब फरमाता था अब हम तेरी बारगाह में नबी के चचा को वसीला बनाते हैं) हज़रते अनस फरमाते हैं कि हर बार पानी बरसता*_
_*📕 बुखारी, जिल्द 1, सफह 137*_
_*ⓩ अब फुक़्हा के कुछ क़ौल और खुद वहाबियों देवबंदियों की किताब से वसीले का सबूत पेश है, इमामुल अइम्मा हज़रते इमामे आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम की बारगाह में युं नज़्र फरमाते हैं कि*_
_*फुक़्हा - आप वो हैं कि जिनका वसीला लेकर हज़रत आदम अलैहिस्सलाम कामयाब हुए हालांकि वो आपके बाप हैं*_
_*📕 क़सीदये नोमानिआ, सफह 12*_
_*ⓩ हज़रत इमाम मालिक रज़ियल्लाहु तआला अन्हु बनी अब्बास के दूसरे खलीफा अबू जाफर मंसूर से फरमाते हैं कि*_
_*फुक़्हा - तुम अपना मुंह हुज़ूर की जाली की तरफ करके ही उनके वसीले से दुआ करो और उनसे मुंह ना फेरो क्योंकि हुज़ूर हमारे और तुम्हारे बाप हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के लिए भी वसीला हैं*_
_*📕 शिफा शरीफ, सफह 33*_
_*ⓩ हज़रत इमाम शाफ़ई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु हज़रते इमामे आज़म रज़ियल्लाहु ताला अन्हु की मज़ारे अक़दस के बारे में फरमाते हैं की*_
_*फुक़्हा - हज़रते इमामे आज़म की मज़ार क़ुबूलियते दुआ के लिए तिर्याक है*_
_*📕 तारीखे बग़दाद, जिल्द 1, सफह 123*_
_*ⓩ हज़रते इमाम अहमद बिन हम्बल रज़ियल्लाहु तआला अन्हु अपने बेटे हज़रत अब्दुल्लाह से हज़रत इमाम शाफई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के बारे में फरमाते हैं कि*_
_*फुक़्हा - हज़रत इमाम शाफई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु ऐसे हैं जैसे कि लोगों के लिए सूरज इसलिए मैं उनसे तवस्सुल करता हूं*_
_*📕 शवाहिदुल हक़, सफह 166*_
_*ⓩ हुज़ूर ग़ौसे पाक रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि*_
_*फुक़्हा - जब तुम अल्लाह से कुछ तलब करो तो मेरे वसीले से मांगो*_
_*📕 बेहिज्जतुल असरार, सफह 23*_
_*ⓩ ये तो हुई हमारे फुक़्हा की बातें अब वहाबियों के भी कुछ क़ौल मुलाहज़ा फरमायें, अशरफ अली थानवी ने लिखा कि*_
_*वहाबी - तवस्सुल दुआ में मक़बूलाने हक़ का ख्वाह वो ज़िंदा हो या वफात शुदा बेशक दुरुस्त है*_
_*📕 फतावा रहीमिया, जिल्द 3, सफह 6*_
_*ⓩ रशीद अहमद गंगोही ने लिखा कि*_
_*वहाबी - हुज़ूर को निदा करना और ये समझना कि अल्लाह आप पर इंकेशाफ फरमा देता है हरगिज़ शिर्क नहीं*_
_*📕 फतावा रशीदिया, सफह 40*_
_*ⓩ हुसैन अहमद टांडवी ने लिखा कि*_
_*वहाबी - आप सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम से तवस्सुल ना सिर्फ वजूदे ज़ाहिरी में बल्कि विसाल के बाद भी किया जाना चाहिय*_
_*📕 मकतूबाते शेखुल इस्लाम, जिल्द 1, सफह 120*_
_*ⓩ क़ासिम नानोतवी ने लिखा कि*_
_*वहाबी - मदद कर ऐ करमे अहमदी कि तेरे सिवा*_
_*नहीं है क़ासिम बेकस का कोई हामीकार*_
_*📕 शिहाबुस साक़िब, सफह 48*_
_*ⓩ सब कुछ आपने पढ़ लिया कि अल्लाह खुद वसीला लगाने का हुक्म देता है खुद हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम ने सहाबियों को वसीले की तालीम दी फुक़्हाये किराम ने वसीला लगाया और तो और खुद वहाबियों ने भी माना कि दुआ में औलिया अल्लाह का वसीला लगाना बिल्कुल जायज़ व दुरुस्त है तो फिर क्यों अपने ही मौलवियों की बात ना मानते हुये ये जाहिल वहाबी हम सुन्नी मुसलमानों को क़बर पुजवा कहकर शिर्क और बिदअत का फतवा लगाते फिरते हैं, सबसे पहले तो वहाबियों को ये करना चाहिए कि अपना स्टेटस क्लियर करें कि आखिर वो हैं क्या, कोई उनके यहां फातिहा करना हराम कहता है तो जायज़ कोई सलाम पढ़ने को शिर्क बताता है तो कोई खुद पढ़ता है कोई मज़ार पर जाने को मना करता है तो कोई खुद ही मज़ार पर पहुंच जाता है आखिर कब तक ये वहाबी इस दोगली पालिसी से मुसलमानों में तफरका डालकर उनको गुमराह व बेदीन बनाते रहेंगे इसका जवाब कौन देगा*_
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