_*बहारे शरीअत, हिस्सा- 01 (पोस्ट न. 137)*_
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_*ईमान और कुफ्र का बयान*_
_*ईमान और कुफ्र का बयान _*ईमान इसे कहते हैं कि सच्चे दिल से उन तमाम बातों की तस्दीक करे जो दीन की ज़रूरियात में से हैं और किसी एक जरूरी दीनी चीज़ के इन्कार को कुफ्र कहते हैं अगरचे बाकी तमाम ज़रूरियात को हक और सच मानता हो मतलब यह कि अगर कोई सारी ज़रूरी दीनी बातों को मानता हो लेकिन किसी एक का इन्कार कर बैठे तो अगर जिहालत और नादानी की वजह से है तो कुफ्र है और जान बूझ कर इन्कार करे तो काफिर है ।*_
_*दीन की ज़रूरियात में वह बातें हैं जिनको हर खास और आम लोग जानते हों जैसे : - अल्लाह तआला की वहदानियत यानी अल्लाह तआला को एक मानना , नबियों की नुबुव्वत , जन्नत , दोज़ख हश्र , नश्र वगैरा । मिसाल के तौर पर एअतिकाद रखता हो कि हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ‘खातमुन्नबीय्यीन ' हैं ( यानी हुजूर के बाद अब कोई नया नबी कभी नहीं आएगा )*_
_*अवाम से मुराद वह लोग हैं जिनकी गिनती आलिमों में तो न हो मगर आलिमों के साथ उनका उठना बैठना रहता हो और वह दीनी और इल्मी बातों का शौक रखते हों । ऐसा नहीं कि वह जंगल बियाबानों और पहाड़ों के रहने वाले हों जो कलिमा भी ठीक से नहीं पड़ सकते हों ऐसे लोग अगर दीन की ज़रूरी बातों को न जानें तो उनके न जानने से दीन की ज़रूरी बातें गैर ज़रूरी नहीं हो जायेंगी । अलबत्ता उनके मुसलमान होने के लिए यह बात ज़रूरी है कि वह दीन और मजहब की ज़रूरी चीजों का इन्कार न करें और यह एअतिकाद रखते हों कि इस्लाम में जो कुछ है हक है और उन सब पर उनका ईमान हो ।*_
_*📕 बहारे शरीअत, हिस्सा 1, सफा 47*_
_*📮जारी रहेगा.....*_
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