_*बहारे शरीअत, हिस्सा- 01 (पोस्ट न. 067)*_
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_*और हदीस शरीफ में भी है कि :*_
_*📝तर्जमा - जब मुसलमान मरता है तो उसका रास्ता खोल दिया जाता है कि जहां चाहे जाये हजरत शाह अब्दुल अजीज साहिब मुहद्दिस देहलवी लिखते हैं कि (रूह रा कुर्ब व बोअ्दे मकानी यकसाँ अस्त) तर्जमा :- रूह के लिए जगह का करीब और दूर होना बराबर है।*_
_*मतलब यह है कि मोमिन की रूहें बिल्कुल आजाद हैं कि जब चाहें और जहां चाहें पहुँच जाएं। उन्हें कैद में नहीं रखा गया है। काफिरों की खबीस रूहों का यह हाल है कि कुछ की उनके मरघट या कब्र पर रहती हैं कुछ को "चाहे बरहूत" में (यमन में एक नाला है जिसका नाम चाहे बरहूत है) कुछ की रूहें पहली, दूसरी सातवीं जमीन तक और कुछ की रूहें उनके भी नीचे ‘सिज्जीन में रहती हैं और वह भी जहाँ कहीं हों जो उनकी कब्र या मरघट पर जाए उसे देखते पहचानते और बात सुनते हैं। उन्हें आने जाने का इखतियार नहीं क्यूंकि वह कैद में है।*_
_*📕 बहारे शरीअत, हिस्सा 1, सफा 27*_
_*📮जारी रहेगा.....*_
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