_*बहारे शरीअत, हिस्सा- 01 (पोस्ट न. 049)*_
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_*नबी से महब्बत*_
_*☝🏻अक़ीदा :- हुजूर अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ताजीम व अजमत का एअतिकाद रखना ईमान का हिस्सा और ईमान का रूक्न है और ईमान के बाद ताजीम का काम हर फ़र्ज़ से पहले है।*_
_*हुजूर की महब्बत भरी इताअत के बहुत से वाकिआत मिलते हैं। यहाँ समझाने के लिए नीचे दो वाकिआत लिखे जाते हैं जो कि हदीसे पाक में गुजरे।*_
_*1) हदीस शरीफ में है कि गजवये खैबर' से वापसी में हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ‘सहबा' नाम की जगह पर अस्र की नमाज पढकर मौला अली मुश्किल कुशा रदियल्लाहु तआला अन्हु के जानू पर अपना मुबारक सर रख कर आराम फरमाने लगे। मौला अली ने अस्र की नमाज़ नहीं पढ़ी थी। देखते देखते सूरज डूब गया और अस्र की नमाज का वक्त चला गया लेकिन हज़रते अली ने अपना जानू इस ख्याल से नहीं सरकाया कि शायद हुजूर के आराम में खलल आये। जब हुजूर ने अपनी आंखें खोलीं तो हजरत अली ने अपनी अस्र की नमाज़ के जाने का हाल बताया। हुजूर ने सूरज को हुक्म दिया डुबा हुआ सूरज पलट आया। मौला अली ने अपनी अस्र की नमाज अदा की और जब हजरत अली ने नमाज अदा कर ली तो सूरज फिर डूब गया। इससे साबित हुआ कि मौला अली ने हुजूर की इताअत और महब्बत में इबादतों में सबसे अफजल नमाज और वह भी बीच वाली (अस्र) की नमाज हुजूर के आराम पर कुर्बान कर दी क्यूंकि हकिकत में बात यह है कि इबादतें भी हमे हुज़ूर ही के सदक़े में मिली है।*_
_*📕 बहारे शरीअत, हिस्सा 1, सफा 21/22*_
_*📮जारी रहेगा.....*_
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