Tuesday, April 28, 2020



  _*बहारे शरीअत, हिस्सा- 02 (पोस्ट न. 06)*_
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_*💎फर्जे अमली : - वह फर्ज है जिसका सुबूत ऐसा कतई तो न हो मगर शरई दलीलों से मुजतहिद की नज़र में यकीन है कि बिना उस के किये आदमी बरीउज़्ज़िम्मा न होगा यहाँ तक कि अगर वह किसी इबादत के अन्दर फर्ज है तो वह इबादत बिना उस के बातिल व बेकार होगी और उसका बिलावजह इन्कार फिस्क व गुमराही है । हाँ अगर कोई शरई दलीलों में नज़र रखने वाला शरई दलीलों से उसका इन्कार करे तो कर सकता है । जैसे मुजतहिद इमामों के इख़्तिलाफ़ात कि एक इमाम किसी चीज़ को फ़र्ज़ कहते हैं और दूसरे नहीं । जैसे हनफ़ियों के नज़दीक वुजू में चौथाई सर का मसह करना फ़र्ज़ है और शाफिई मजहब में एक बाल का और मालिकी मज़हब में पूरे सर का मसह फर्ज है हनफ़ियों के नज़दीक वुजू में बिस्मिल्लाह शरीफ़ का पढ़ना और नियत करना सुन्नत है लेकिन हम्बली और शाफ़िई मजहब में फ़र्ज़ है और इसके अलावा और बहुत सी मिसालें हैं । इस फर्जे अमली में हर आदमी उसी की पैरवी करे जिसका वह मुकल्लिद है । अपने इमाम के खिलाफ बिना शरई जरूरत के दूसरे इमाम की पैरवी जाइज़ नहीं ।*_

 _*💠वाजिबे एअतिकादी : - वाजिबे एअतिकादी वह है कि दलीले जन्नी से उसकी ज़रूरत साबित हो । फर्जे अमली और वाजिबे अमली इसी की दो किस्में हैं और वह इन्हीं दोनों में मुन्हसिर है यानी घिरी हुई है । ( दलीले जन्नी वह दलील है जिस के दुरूस्त और ना दुरूस्त होने पर फैसला मुश्किल हो )*_

 _*💠वाजिबेअमली : - वह वाजिबे एअतिक़ादी है कि बिना उसके किये भी बरीज्जिम्मा होने का एहतिमाल ( शक ) हो मगर गालिबे जन ( गालिब गुमान ) उस की ज़रूरत पर है और अगर किसी इबादत में उसका बजा लानां ज़रूरी हो तो इबादत बे उसके नाक़िस ( अधूरी ) रहेगी मगर अदा हो जायेगी । मुजतहिद दलीले शरई से वाजिब का इन्कार कर सकता है और किसी वाजिब का एक बार भी जान बूझ कर छोड़ना सगीरा मुनाह है और कई बार छोड़ना गुनाहे कबीरा है ।*_


_*📕बहारे शरिअत हिस्सा 2, सफा 8*_

_*🤲 तालिबे दुआँ क़मर रज़ा ह़नफ़ी*_

_*📮जारी रहेगा.....*_
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